ज़ेन साधक जब शिष्यों के साथ ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास करता, तो कुटिया की निस्तब्धता में चूहों की उछल-क़ूद खलल पैदा करती। चूहों की धमाचौकड़ी से परेशान साधक एक बिल्ली ले आया और जब भी वे लोग ध्यान करते, बिल्ली को पास में बांध लेते। साधक शिष्यों के साथ ध्यान में डूब जाता, बिल्ली चुपचाप सोई रहती और चूहे डर के मारे वहां आते नहीं।
कई वर्ष बीत गए। शिष्य अपने-अपने रास्ते चले गए। नए शिष्य आते गए। ध्यान चलता रहा। बिल्ली बंधी रही। एक दिन वृद्ध ज़ेन साधक ने अपनी अंतिम सांस ली। उसके शिष्य ने उसकी गद्दी सम्भाल ली। गुरु के समान वह भी ध्यान कक्ष में बिल्ली बंधे रहने देता था। एक दिन बिल्ली बूढ़ी होकर मर गई। आश्रम वाले नई बिल्ली ले आए।
कई पीढ़ियां ऐसे ही बीत गईं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी ध्यान चलता रहा। बिल्ली बांधी जाती रही, यह उस आश्रम की अनिवार्य परंपरा-सी हो गई। कोई तीन-चार सौ साल बाद एक युवक के मन में प्रश्न उठा कि आखिर ध्यान करते समय बिल्ली क्यों बांधी जाती है? उत्तर किसी के पास नहीं था।
उस युवक ने ध्यान-प्रक्रियाओं और पद्धतियों के बारे में तमाम ग्रंथ पढ़ डाले, जानवरों के बारे में तमाम जानकारियां खंगाल डालीं। औरफिर एक ग्रंथ लिखा जिसका विषय था-‘ध्यान-प्रक्रिया और परम ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में बिल्ली को साथ रखने का महत्व।’ यह ग्रंथ बहुत चर्चित हुआ और दुनियां-भर में कई साधक ध्यान में बैठते समय पास में बिल्ली बांधने लगे ।
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