07 जनवरी, 2010

प्रेमचंद जी - महादेवी वर्मा

प्रेमचंद
(कवयित्री महादेवी वर्मा का लेख जिसमें उन्होंने लिखा कि प्रेमचंद को लेकर वे क्या सोचती हैं)

प्रेमचंदजी से मेरा प्रथम परिचय पत्र के द्वारा हुआ. तब मैं आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी. मेरी “दीपक” शीर्षक एक कविता शायद “चाँद” में प्रकाशित हुई. प्रेमचंदजी ने तुरंत ही मुझे कुछ पंक्तियों में अपना आशीर्वाद भेजा.

तब मुझे यह ज्ञान नहीं था कि कहानी और उपन्यास लिखने वाले कविता भी पढ़ते हैं. मेरे लिए ऐसे ख्यातनामा कथाकार का पत्र जो मेरी कविता की विशेषता व्यक्त करता था, मुझे आशीर्वाद देता था, बधाई देता था, बहुत दिनों तक मेरे कौतूहल मिश्रित गर्व का कारण बना रहा.

उनका प्रत्यक्ष दर्शन तो विद्यापीठ आने के उपरांत हुआ. उसकी भी एक कहानी है. एक दोपहर को जब प्रेमचंदजी उपस्थित हुए तो मेरी भक्तिन ने उनकी वेशभूषा से उन्हें भी अपने ही समान ग्रामीण या ग्राम निवासी समझा और सगर्व उन्हें सूचना दी-गुरुजी काम कर रही हैं.

प्रेमचंदजी ने अपने अट्टहास के साथ उत्तर दिया- तुम तो खाली हो. घड़ी-दो घड़ी बैठकर बात करो. और तब जब कुछ समय के उपरांत मैं किसी कार्यवश बाहर आई तो देखा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है. विद्यापीठ के चपरासी, चौकीदार, भक्तिन के नेतृत्व में उनके चारों ओर बैठे हैं और लोक-चर्चा आरंभ है.

प्रेमचंदजी के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी, जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं होती.

अपनी गंभीर मर्मस्पशर्नी दृष्टि से उन्होंने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान किया और अपनी सहज सरलता से, आत्मीयता से उसे सब ओर दूर-दूर तक पहुँचाया.

जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया था, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत् में ही सीमित था. उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक व्यापक धरातल पर ले आए. जो सर्व-सामान्य था.

उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलिहान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुँचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई.

कवि अंतर्मुखी रह सकता है और जीवन की गहराई से किसी सत्य की खोज कर, फिर ऊपर आ सकता है. लेकिन कथाकार को बाहर-भीतर दोनों दिशाओं में शोध करना पड़ता है, उसे निरंतर सबके समक्ष रहना पड़ता है. शोध भी उसका रहस्यमय नहीं हो सकता, एकांतमय नहीं हो सकता. जैसे गोताखोर जो समुद्र में जाता है, अनमोल मोती खोजने के लिए, वहीं रहता है और मोती मिल जाने पर ऊपर आ जाता है

प्रायः जो व्यक्ति हमें प्रिय होता है, जो वस्तु हमें प्रिय होती है, हम उसे देखते हुए थकते नहीं. जीवन का सत्य ही ऐसा है. जो आत्मीय है, वह चिर नवीन भी है. हम उसे बार-बार देखना चाहते हैं. कवि के कर्म से कथाकार का कर्म भिन्न होता है.

कवि अंतर्मुखी रह सकता है और जीवन की गहराई से किसी सत्य की खोज कर, फिर ऊपर आ सकता है. लेकिन कथाकार को बाहर-भीतर दोनों दिशाओं में शोध करना पड़ता है, उसे निरंतर सबके समक्ष रहना पड़ता है.

शोध भी उसका रहस्यमय नहीं हो सकता, एकांतमय नहीं हो सकता. जैसे गोताखोर जो समुद्र में जाता है, अनमोल मोती खोजने के लिए, वहीं रहता है और मोती मिल जाने पर ऊपर आ जाता है. परंतु नाविक को तो अतल गहराई का ज्ञान भी रहना चाहिए और ज्वार-भाटा भी समझना चाहिए, अन्यथा वह किसी दिशा में नहीं जा सकता.

प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की. पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रहती थी. संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे. वह उन्हें छोड़ने चले गए.

ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं. उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं. वह भूलने के योग्य नहीं है. उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं.

ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके संबंध में प्रेमचंद का निश्चित मत नहीं है. दर्शन, साहित्य, जीवन, राष्ट्र, सांप्रदायिक एकता, सभी विषयों पर उन्होंने विचार किया है और उनका एक मत और ऐसा कोई निश्चित मत नहीं है, जिसके अनुसार उन्होंने आचरण नहीं किया.

जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया, उसके अनुसार उन्होंने निरंतर आचरण किया. इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य, दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जाँचने की कसौटी भी हैं.

हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो-जो हम में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है.

(सहमत मुक्तनाद के 'मुंशी प्रेमचंद प्रकाशन से साभार)

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