14 जनवरी, 2010

आग हम लगा देते वरना इस जमाने में - ग़ज़ल (‘मयंक’ अकबराबादी)

परिचय
जनाब केके सिंह बतख़ल्लुस ‘मयंक’ अकबराबादी की पैदाइश 1944 में उप्र के मथुरा जिले में हुई। कुछ समय बाद वे आगरा चले आए और वहीं उनकी शिक्षा पूरी हुई। उन्हें बचपन से ही कविता, गीत, ग़ज़ल लिखने का शौक़ रहा। तक़रीबन 30 साल से उर्दू अदब की ख़िदमत कर रहे हैं। मयंक साहब का कलाम फिल्म, दूरदर्शन, रेडियो और कैसेट, सीडियों के जरिए अवाम तक पहुंच रहा है।



उम्र बीत जाती है जिसको घर बनाने में।
आग क्यों लगाते हो उसके आशियाने में।।



ख़ास इक तअल्लुक़ है इक गज़ब का रिश्ता है।
जीस्त की कहानी में इश्क़ के फ़साने में।।



कब मुझे गवारा है मुफ़लिसी की रुसवाई।
मुंह छुपाए बैठा हूं मैं ग़रीबख़ाने में।।



रात भर चला आख़िर खेल ये मुहब्बत का।
कट गई शबे-रंगीं रूठने-मनाने में।।



दोस्त तो बना लेना हर किसी को है आसां।
मुश्किलें हजारों हैं दोस्ती निभाने में।।



मश्विरा ये मेरा है भूल के भी मत करना।
तजकिरा वफ़ाओं का बेवफ़ा जमाने में।।


क्या करें ‘मयंक’ अपना बस नहीं चलता।

आग हम लगा देते वरना इस जमाने में।।



मायने

जीस्त= जिंदगी,जीवन /मुफ़लिसी= दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली/ रुसवाई=बदनामी,निंदा, अपयश,कुख्याति / तल्ख़ियां= कटुता, कड़वापन, सच्चाई / तजकिरा= चर्चा, फिक्र, वार्तालाप



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Related Posts with Thumbnails