16 जनवरी, 2010

उद्देश्य -कहानी ( मीरा जैन)

‘कितनी देर कर दी? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी, दो ही घंटे की तो पूजा है और इसे शुरू हुए आधे घंटे बीत चुके हैं, फिर तुम्हारे यहां बहू भी तो है।’

‘यही तो रोना है। उसे कितनी बार कहा, आज जल्दी खाना बना देना, मुझे पूजा में जाना है, लेकिन उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। उसे जब जो करना है वही करती है। आज बैंक का ज़रूरी काम कहकर चली गई। एक घंटे में लौटी। कुछ कहो, तो उल्टा जवाब देगी- ‘दाल-सब्ज़ी तो बनी रखी थी, ज्यादा जल्दी थी तो दो रोटी खुद ही सेंककर खा लेतीं!’ अब तुम्हीं बताओ मेरी उम्र है क्या, रोटी बनाने की?’



‘हां, तुमने बिल्कुल ठीक कहा। आज-कल की बहुएं होती ही हैं नकचढ़ी। एक बोलो, दस सुनाती हैं। मैं तो खूब ठोक बजाकर लाऊंगी, अगर उसने ज्यादा चूं-चपट की, तो मायके का रास्ता दिखा दूंगी। चल आज की पूजा तो समाप्त हो गई, कल समय पर आ जाना..।’

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