एक मलिका थी- नाम था लैला। दूर-दूर तक उसका साम्राज्य फैला था। बड़ी विदुषी, इंसाफ़ करने वाली, अपनी प्रजा की भलाई के काम में रात-दिन लगी रहती। उसकी सैना बहुत शक्तिशाली थी। राज्य काफ़ी धनी, संपन्न।
एक दिन उसका वज़ीर लंबी यात्रा से लौटा। वह ग़ुस्से से तमतमा रहा था। आते ही बोला, ‘ए महान सुल्ताना, मैं पूरी सल्तनत का दौरा करके आया हूं। आपके इंसाफ़ और इंतज़ाम की वजह से दूर-दूर तक अमन-चैन है। लोग सुखी हैं। फिर भी कई ऐसे लोग हैं, जो आपके फ़ैसलों का मज़ाक़ बना रहे हैं। आपके बारे में भद्दी अफ़वाहें फैलाते हैं। मैं ऐसे लोगों की फ़ैहरिस्त बनाकर लाया हूं। हुक्म दें, तो उन सबको सज़ा-ए-मौत दिलवाऊं।’
लैला ने मुस्कुराकर कहा, ‘ऐ वज़ीर, सातों ज़मीनों तक मेरी सल्तनत फैली है। दूर-दूर तक •यादातर लोग मेरे इंसाफ़ को मानते हैं। मुझे इ•ज़त देते हैं। मेरे पास इतनी ताक़त है, जितनी आज दुनिया में किसी इंसान के पास नहीं। मैं चाहूं, तो सात ज़मीनों में सारे दरवाज़े एक इशारे पर बंद हो जाएंगे।
लेकिन फिर भी मैं लोगों का मुंह बंद नहीं कर सकती। महत्वपूर्ण यह नहीं कि कुछ लोग मेरे बारे में क्या बातें करते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि मैं तमाम लोगों के लिए क्या करती हूं, क्या करना चाहती हूं।’
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