18 जनवरी, 2010

आंखों में फिर जज्ब हुआ इक दर्द का मंजर और - ग़ज़ल (नक्श इलाहबादी)

आंखों में फिर जज्ब हुआ इक दर्द का मंजर और
आज एक ही बूंद में डूबा एक समंदर और

रब्त मेरा जब बाहर की दुनिया से टूटता है
इक संसार जनम लेता है मेरे अंदर और

फ़िक्र-ओ-घुटन बेव़क्त की दस्तक बेरब्त आवाजें
इसके अलावा देता भी क्या मुझको मेरा घर और

उसकी झुलसती रूह पे रख दो मेरे बदन की छांव
मेरे पिघलते जिस्म पे लिख दो एक दोपहर और

उसका आख़िरी तीर बचा है मेरी आख़िरी सांस
कहर बहर सूरत टूटेगा एक न इक पर और

सुब्ह की पहली किरन तलक मैं बन जाऊंगा ़ख्वाब
तू भी मुझमें कर ले बसेरा सिर्फ़ रात भर और

मायनेरब्त=संबंध, दोस्ती, तआल्लुक/बेरब्त=बेढंगी, बेमेल /बहर=समुद्र

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