20 जनवरी, 2010

योद्धा - कहानी

एक ज़ेन साधक अपने समय का जाना-माना योद्धा था। वृद्धावस्था में वह सारा समय ध्यान में और शिष्यों के बीच बिताता था। उन्हीं दिनों एक नौजवान योद्धा की काफ़ी धूम थी। वह अत्यंत कुशल लड़ाका था और अच्छे-अच्छे उसके सामने टिक नहीं पाते थे। चतुर भी था। एक दिन ऐसा आया कि इस वयोवृद्ध ज़ेन साधक योद्धा के अलावा सब नामी योद्धाओं को पराजित कर चुका था।

‘तो इसे भी क्यों छोड़ूं’ नौजवान योद्धा ने सोचा और वृद्ध साधक को द्वंद्व की चुनौती दे दी। शिष्यों-भक्तों के लाख मना करने पर भी साधक ने चुनौती स्वीकार कर ली। नियत दिन पर दोनों योद्धा आमने-सामने हुए।

चतुर युवा योद्धा, सामने खड़े वृद्ध किंतु एकदम शांत और स्थिर प्रतिद्वंदी को देखकर समझ गया कि उसके सामने एक महान शक्ति मौजूद है और इस शक्ति का स्रोत शरीर में नहीं, बल्कि मन के भीतर कहीं है। तो उसने अपनी रणनीति का इस्तेमाल करते हुए वृद्ध को गालियां देनी शुरू कर दीं। एक से एक गंदी और अपमानजनक बातें कहीं, जिनसे कि वृद्ध विचलित हो, किंतु वृद्ध एकदम शांत खड़ा रहा। कुछ देर बाद युवा योद्धा ने हथियार फैंक, हार मान ली।

वृद्ध साधक के शिष्यों ने उससे पूछा, ‘यह क्या, वह आपसे बिना लड़े भाग गया और आप इतनी गालियां और अपमान सुनकर भी चुपचाप खड़े रहे?’

‘उसकी मेरे बारे में कही गई कोई भी बात सच नहीं थी’, साधक ने कहा, ‘इसलिए मैंने उन्हें स्वीकार नहीं किया।’

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