22 जनवरी, 2010

अल्लामा की रूह

मुशायरे हों या साहित्यिक समारोह, शायरों और अदीबों के हवाले से अक्सर कई दिलचस्प वाक़यात होते हैं। तऱक्क़ी पसंद अदीबों की एक कॉन्फ्रेंस हैदराबाद में हुई। इसमें बंबई के प्राय: सभी अदीब शायर मौजूद थे। उस समय तऱक्क़ी पसंद तहरीक के बानी अली सज्जाद ज़हीर (बन्ने भाई) थे तथा यह कॉन्फ्रेंस उन्हीं के नेतृत्व में हो रही थी।



उन दिनों हैदराबाद रेडियो के स्टेशन डायरैक्टर मुशताक अहमद थे, बहुत रौबदार थे। हमेशा सफ़ेद सलवार-कुर्ते पर सफ़ेद शेरवानी पहनते तथा जूता भी हमेशा सफ़ेद ही होता। रेडियो स्टेशन की ईमारत में उनके सामने परिंदा भी पर नहीं मार सकता था, लेकिन यह मशहूर था कि शाम को यहां से निकलने के बाद वह जी भरकर ताड़ी पीते थे और आमतौर पर किसी गली या सड़क पर गिरे हुए मिलते थे।



कॉन्फ्रेंस के दिनों में कई नामवर अदीबों-शायरों को रेडियो पर बुलया जाता था तथा अनेक अदीब-शायर मुशताक अहमद से परिचित हो गए थे। एक दिन कॉन्फ्रेंस में शाम के इजलास के बाद हैदराबाद के नवाब की दावत से जब देर रात को सभी अदीब लौट रहे थे, तो उन्हें दूर से एक सफ़ेद-सी चीज़ ज़मीन पर पड़ी दिखाई दी। ़ख्वाजा अहमद अब्बास, मजाज़ लखनवी, अली सरदार जाफ़री, साहिर, हमीद अ़ख्तर, बन्ने भाई आदि सभी ठिठक गए।



क़रीब पहुंचकर देखा, तो पाया कि वह मुशताक अहमद थे। क़द-काठ में लंबे-तगड़े दोहरे बदनवाले वह बीच सड़क में ओंधे मुंह लेटे हुए थे। उन्हें बहुत कठिनाई से उठाया गया। थोड़ी देर बाद वह उठकर खड़े हो गए और डगमगाते हुए क़दमों से आगे बढ़कर ़ख्वाजा अहमद अब्बास के सामने आकर रुक गए। उन्हें ग़ौर से देखा, पूछा- ‘आप अब्बास साहिब ही हैं न।’ अब्बास साहिब ने कहा- ‘जी, मैं ही ़ख्वाजा अहमद अब्बास हूं।’ बिल्कुल निकट आकर वह अब्बास साहिब से लिपट गए और जारो-क़तार रोने लगे। कभी वह अब्बास को चूमते, कभी लिपटते, कभी ग़ौर से उनके चेहरे को दोनों हाथों से पकड़कर देखते और दहाड़ें मारकर रोने लगते।



‘मुशताक साहिब, आप रो क्यों रहे हैं?’ बन्ने भाई ने पूछा। मुशताक साहिब ने ़ख्वाजा अहमद अब्बास की तरफ़ इशारा करते हुए और एक ज़ोरदार चीख़ मारते हुए बोले- ‘यहां ़ख्वाजा अलताफ़ हुसैन हाली का नवासा और इतना गंजा।’



कॉन्फ्रेंस के अंतिम दिन रात को मुशायरा होना था। अचानक ख़बर मिली कि कुछ विरोधी तत्व मुशायरे में गड़बड़ करने का प्रोग्राम बना रहे हैं। रात को मुशायरा शुरू हुआ, हॉल खचाखच भरा हुआ था। कई शायरों ने इतमीनान से अपना कलाम सुनाया। उन दिनों योम-ए-इक़बाल यानी अल्लामा इक़बाल का जन्म दिन था। जब अली सरदार जाफ़री माइक पर आए, तो उन्होंने अल्लामा की तारीफ़ में कुछ शब्द कहे। अभी वह बोल ही रहे थे कि साहब उठकर खड़े हो गए, ज़ोर से बोले- ‘सरदार जाफ़री, अल्लामा इक़बाल को कम्यूनिस्ट बनाकर पेश कर रहे हैं। उनकी यह तकरीर सुनकर अल्लामा की रूह तड़प रही होगी।’ इस पर हंगामा हो गया।



अपीलों के बावजूद हुल्लड़बाज़ी जारी रही। मजाज़ लखनवी, जो स्टेज पर बैठे थे और बहुत कम बोलते थे, अचानक उठकर माइक पर आ गए तथा ऊंची आवाज़ में बोले- ‘हज़रात, असल में यह साहब ख़ुद तड़प रहे हैं और अपने आपको अल्लामा की रूह समझ रहे हैं।’ मजाज़ का इतना कहना था कि हाल में कहकहे गूंज उठे और मुशायरे की कार्यवाही सामान्य ढंग से चलने लगी।


डॉ. केवल धीर

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