19 जनवरी, 2010

दीवाली की वह रात - कहानी (बानो कुदसिया)

रूपा के माता-पिता और भाई-बहन परेशान थे कि आख़िर उसे हो क्या गया है? न मुस्कुराना, न हंस-हंसकर बातें करना, न किसी सहेली से मिलना, न खाने का ख्याल, न पहनने की चिंता। वे लोग सोचते-सोचते इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लड़की जवान हो गई है। अब इसके हाथ पीले कर देने चाहिए। वह रूपा के विवाह की धुन में लग गए।

समय तेज़ी से उड़ता चला जा रहा था। दीवाली फिर आ गई। रूपा की नज़रों में पिछली दीवाली का वह अविस्मरणीय दृश्य धूम गया। आंखों में आंसू जारी हो गए। दिल में एक ऐसी पीड़ा उठी कि उसे दबाना कठिन हो गया। रूपा व्याकुलता से मोमन खां की सवारी की प्रतीक्षा करने लगी।

आख़िर दिन ढला और शाम हुई। लोग ख़ुशी से दीए जलाने लगे। देखते-देखते चारों ओर एक आकर्षक दृश्य फैल गया। मोमन ख़ां का आगन की कोई आशा न थी, लेकिन रूपा का मन कह रहा था कि वह अवश्य आएगा। वह बड़े अरमान से उसकी प्रतीक्षा करती रही।

आख़िर उसकी मुराद पूरी हुई। दिल की कली खिल गई। नक्कारों की आवाज़ वायुमंडल में गूंज गई। रूपा ने आंखें मल-मलकर देखा। वह सचमुच मोमन ख़ां की सवारी थी।

रूपा की हालत अजीब-सी हो गई। मोमन ख़ां उस दिन बहुत ख़ुश नज़र आ रहा था। दीवाली की ख़ुशी में वह भी बराबर शामिल था। रूपा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वह भावनाओं के तीव्र तूफ़ान में एक तुच्छ तिनके की तरह बह गई। दिल के धड़कते शोलों ने ऊंचे उठकर उसके विवेक को भस्म करके रख दिया।

उसके दिल में एक अजीब-सी हूक उठी। रूपा वह हूक दबा न सकी। प्रेम जुनून की सीमा तक पहुंच गया। मर्यादा और लज्जा की दीवारें ढह गईं।

सड़क पर दोनों ओर खड़े हुए लोगों ने एक अजीब दृश्य देखा। एक लड़की पागलों की तरह दौड़ती हुई, सुरक्षा-दस्ते को चीरती हुई नवाब मोमन ख़ां के समने जा खड़ी हुई। एक क्षण के लिए मोमन ख़ां की आंखें चुंधिया गईं। उसे ऐसा लगा, जैसे चांद अचानक उसके ऐन सामने आ गया हो, जैसे सुंदरता की देवी ने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया हो। रूपा के लंबे काले बाल उसके गालों और कंधों पर बिखरे हुए थे।

मोमन ख़ां घोड़े से उतर गया। उसे यह पसंद नहीं था कि वह स्वयं घोड़े पर सवार रहे और बात करने वाला नीचे खड़ा हो। उसने नरम आवाज़ में लड़की से सवाल किया, ‘शायद आप हमसे कुछ कहना चाहती हैं?’ रूपा कुछ बोल न सकी, ‘हां’ में सिर हिलाकर रह गई। मोमन ख़ां ने कहा, ‘हम सुनना चाहते हैं, फ़रमाइए।’

रूपा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, जैसे अपना उद्देश्य आंखों ही आंखों से बयान कर देना चाहती हो। एक क्षण के लिए मौन छा गया। सारे लोग हैरान और चुपचाप खड़े थे। रूपा ब़ेख्याली में अपना आंचल उंगलियों पर लपेटने लगी। फिर घबराई हुई आवाज़ में बोली, ‘कितना अच्छा हो, यदि ईश्वर मुझे आपकी शक्ल और आपकी सीरत का एक लड़का प्रदान करे।’

न जाने किस शक्ति और भावना ने रूपा के मुंह से अनायास ही यह कहलवा दिया। उसे शायद अहसास रहा होगा कि क्या पता, सामना फिर हो, न हो। समय भी कम है। जो कहना है, अभी कह देना चाहिए। उसका सुंदर चेहरा शर्म से सुर्ख़ हो गया। ख़ूबसूरत आंखें मेंहदी-रचे पांवों में खुभ गईं।

ओह। हम समझ गए। समझदार मोमन ख़ां बात की तह तक पहुंच गया। उसने कहा, ‘बीबी, आपके रिवाÊा और हैं, हमारी रस्में और। आप हिंदू हैं, मैं मुसलमान। इसलिए हमारी शादी दुनिया की नज़र में एक ग़लत बात होगी। उंगलियां उठाने वाले हमें हवसपरस्त कहेंगे। लोग न आपको चैन लेने देंगे, न हमें।’

रूपा के सुंदर होंठों में जुम्बिश पैदा नहीं हुई। मोमन ख़ां ने अपनी बात जारी रखी- ‘हम आपके ज•बात की क़द्र करते हैं, लेकिन यह भी तो सोचिए, अगर आप और हम दुनिया की परवाह किए बिना शादी कर भी लें, तो हो सकता है, हमारे औलाद ही न हो। अगर हो भी, तो इसकी जमानत कौन दे सकता है कि वह लड़का ही होगा। ख़ैर, अगर यह मान लिया जाए, हमारा लड़का ही होगा, तो क्या ज़रूरी है कि वह शक्ल सीरत में आपकी आरÊाू के मुताबिक़ हो। फ़र्क़ भी हो सकता है।’

इस तर्क का रूपा क्या जवाब देती? कांपती आवाज़ में कहने लगी, ‘मैं भगवान से प्रार्थना..।’मोमन ख़ां ने उसकी बात काट दी, आपकी प्रार्थना बेकार नहीं जाएगी। दिल से निकली हुई दुआ ज़रूर मंजूर होती है और मैं आपके यह ख़ुशख़बरी सुनाता हूं कि आपकी दुआ क़बूल हो चुकी है।

रूपा ने विस्मित दृष्टि से उसकी ओर देखा। मोमन ख़ां बोला, ‘इधर देखिए। आपको हम जैसा लड़का चाहिए न? हम अपनी तलवार की क़सम खाकर कहते हैं कि आज से आप हमारी मां हैं।’

मोमन ख़ां ने अपनी बात पर सच्चई की मोहर लगाने में देर नहीं की। असंख्य लोगों की उत्सुक दृष्टि ने एक विस्मयकारी घटना देखी। नवाब मोमन ख़ां अपने ओहदे और शान की परवाह किए बिना अपनी मुंहबोली मां रूपा के चरणों में झुका हुआ था।

इसके बाद मोमन ख़ां नंगे पांव रूपा के घर गया और इतिहास साक्षी है कि वह जब तक जीवित रहा, सगी मां की तरह रूपा का सम्मान करता रहा। रूपा ने सारी उम्र शादी नहीं की। मोमन ख़ां दशहरे, रक्षाबंधन, बैसाखी और दीवाली आदि त्योहारों पर उसके घर सदा उपहार ले जाता और उसके चरण छूता रहा। नवाब मीर मोमन ख़ां बुझारी नस्ल का सैयद था। उसका मक़बरा लाहौर के भाटी दरवाज़े के बाहर दाता के मज़ार के पश्चिम में है, जो आज भी पुरानी यादें ताज़ा कर रहा है।

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